Saturday, April 27, 2024
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राग की विस्तृत जानकारी

Instructions: Sign (k) = Komal Swar, (t) = Teevra Swar, Small Alphabets = Lower Octave, Capital Alphabets = Higher Octave. See Harmonium Theory Click Here Key Name details with diagram.

पौराणिक काल में जब 12 स्वर खोज लिए गये होंगे, तब इन्हें इस्तेमाल करने के तरीके ढूँढ़े गये। इन्ही 12 स्वरों के मेल से ही कई राग (Raag) बनाए गये। उनमें से कई रागों में समानता भी थी। कवि लोचन ने ‘राग-तरंगिणी’ ग्रंथ में 16 हजार रागों का उल्लेख किया है। लेकिन इतने सारे रागों में से चलन में केवल 16 राग ही थे। राग उस स्वर समूह (Swar Samooh) को कहा गया जिसमें स्वरों के उतार-चढ़ाव और उनके मेल में बनने वाली रचना सुनने वाले को मुग्ध कर सके। यह जरूरी नहीं कि किसी भी राग में सातों स्वर लगें। यह तो बहुत पहले ही तय कर दिया गया था, कि किसी भी राग में कम से कम पाँच स्वरों (Notes) का होना जरूरी है। ऐसे और भी नियम बनाये गये थे जैसे षड्ज यानी ‘सा’ का हर राग में होना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि ‘सा’ ही तो हर राग का आधार है। कुछ स्वर जो राग में बार-बार आते हैं उन्हें ‘वादी’ कहते हैं और ऐसे स्वर दो ‘वादी’ स्वर से कम लेकिन अन्य स्वरों से अधिक बार आएँ उन्हें ‘संवादी’ कहते हैं। लोचन कवि ने 16 हजार रागों में से कई रागों में समानता पाई, तो उन्हें अलग-अलग वर्गों में विभाजित किया। उन्होंने 12 वर्ग तैयार किये जिनमें से हर वर्ग में कुछ-कुछ समान स्वर वाले राग शामिल थे। इन वर्गों को ‘मेल’ या ‘थाट’ कहा गया।

राग’ (Raag) शब्द संस्कृत की धातु ‘रंज‘ से बना है। रंज् का अर्थ है – रंगना। जिस तरह एक चित्रकार तस्वीर में रंग भरकर उसे सुंदर बनाता है, उसी प्रकार संगीतज्ञ मन और शरीर को संगीत के सुरों से रंगता ही तो हैं। रंग में रंग जाना मुहावरे का अर्थ ही है कि सब कुछ भुलाकर मगन हो जाना या लीन हो जाना है। संगीत का भी यही असर होता है। जो रचना मनुष्य के मन को आनंद के रंग से रंग दे वही राग कहलाती है। हर राग का अपना एक रूप, एक व्यक्तित्व होता है, जो उसमें लगने वाले स्वरों और लय पर निर्भर करता है। आरोह का अर्थ है चढना और अवरोह का उतरना। संगीत में स्वरों को क्रम उनकी ऊँचाई-निचाई के आधार पर तय किया गया है। ‘सा’ से ऊँची ध्वनि ‘रे’ की, ‘रे’ से ऊँची ध्वनि ‘ग’ की और ‘नि’ की ध्वनि सबसे अधिक ऊँची होती है। जिस तरह हम एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ते हुए किसी मकान की ऊपरी मंजिल तक पहुँचते हैं, उसी तरह गायक सा-रे-ग-म-प-ध-नि-सां का सफर तय करते हैं। इसी को ‘आरोह‘ कहते हैं। इसके विपरीत ऊपर से नीचे आने को ‘अवरोह‘ कहते हैं। तब स्वरों का क्रम ऊँची ध्वनि से नीची ध्वनि की ओर होता है जैसे सां-नि-ध-प-म-ग-रे-सा। साधारण गणित के हिसाब से देखें तो एक ‘थाट’ (Thaat) के सात स्वरों में 484 राग तैयार हो सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कोई डे़ढ़ सौ राग ही प्रचलित हैं। मामला बहुत पेचीदा लगता है, लेकिन यह केवल साधारण गणित की बात है।

थाट’ में 7 स्वर अर्थात् सा, रे, ग, म, प,ध, नि, होने आवश्यक है। यह बात अलग है, कि किसी ‘थाट’ में कोमल और किसी में तीव्र स्वर होंगे या मिले-जुले स्वर होंगे। इन ‘थाटों’ में वही राग रखे गये जिनके स्वर मिलते-जुलते थे। इसके बाद सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण के विद्वान पंडित श्रीनिवास (Pandit Shrinivas) ने सोचा, कि रागों को उनके स्वरों की संख्या के हिसाब से ‘मेल’ में रखा जाये, जैसे जिन रागों में 5 स्वर हों वे एक ‘मेल’ में, छः स्वर वाले दूसरे और 7 स्वर वाले तीसरे ‘मेल’ में। कई विद्वानों में इस बात को लेकर चर्चा होती रही कि रागों का वर्गीकरण ‘मेलों’ में कैसे किया जाये। दक्षिण के ही एक अन्य विद्वान व्यंकटमखी ने गणित का सहारा लेकर कुल 72 ‘मेल’ बताए। उन्होंने दक्षिण के रागों के लिए इनमें से 19 ‘मेल’ चुने। इधर उत्तर भारत में विद्वानों ने सभी रागों के लिए 32 ‘मेल’ चुने। अन्ततः पंडित भातखण्डेजी (Pandit Visnu Narayan Bhatkhande) ने यह तय किया कि उत्तर भारतीय संगीत के सभी राग 10 ‘मेलों’ में समा सकते हैं। ये ‘मेल’ कौन-कौन से हैं, इन्हें याद रखने के लिए ‘चतुर पण्डित’ ने एक कविता बनाई। चतुर पण्डित कोई और नहीं स्वयं पण्डित भातखण्डे जी ही थे। इन्होंने कई रचनाएँ ‘मंजरीकार’ और ‘विष्णु शर्मा’ नाम से भी रची है।

यमन, बिलावल और खमाजी, भैरव पूरवि मारव काफी।
आसा भैरवि तोड़ि बखाने, दशमित थाट चतुर गुनि मानें।।

थाट से उत्पन्न होने वाले कुछ राग :

1. ‘कल्याण थाट’ या ‘यमन थाट’ से भूपाली, हिंडोल, यमन, हमीर, केदार, छायानट व गौड़सारंग।
2. ‘बिलावट थाट’ से बिहाग, देखकार, बिलावल, पहा़ड़ी, दुर्गा व शंकरा।
3. ‘खमाज थाट’ से झिझोटी, तिलंग, खमाज, रागेश्वरी, सोरठ, देश, जयजयवन्ती व तिलक कामोद।
4. ‘भैरव थाट’ से अहीर भैरव, गुणकली, भैरव, जोगिया व मेघरंजनी।
5. ‘पूर्वी थाट’ से पूरियाधनाश्री, वसंत व पूर्वी।
6. ‘काफी थाट’ से भीमपलासी, पीलू, काफी, बागेश्वरी, बहार, वृंदावनी सारंग, शुद्ध मल्लाह, मेघ व मियां की मल्हार।
7. ‘आसावरी थाट’ से जौनपुरी, दरबारी कान्हड़ा, आसावरी व अड़ाना।
8. ‘भैरवी थाट’ से मालकौंस, बिलासखानी तोड़ी व भैरवी।
9. ‘तोड़ी थाट’ से 14 प्रकार की तोड़ी व मुल्तानी।
10. ‘मारवा थाट’ से भटियार, विभास, मारवा, ललित व सोहनी आदि राग पैदा हुए।

आज भी संगीतज्ञ इन्हीं दस ‘थाटों’ की मदद से नये-नये राग बना रहे हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि हर ‘थाट’ का नाम उससे पैदा होने वाले किसी विशेष राग के नाम पर ही दिया जाता है। इस राग को ‘आश्रय राग’ कहते हैं, क्योंकि बाकी रागों में इस राग का थोड़ा-बहुत अंश तो दिखाई ही जाता है। थाट को समझने के लिए यहाँ क्लिक करें…

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